कबीर दास जी के दोहे
 
 बुरा जो देखन मैं चलाए बुरा न मिलिया कोयए
जो दिल खोजा आपनाए मुझसे बुरा न कोय।
 
अर्थ रू जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिलाण् जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं हैण्
 
 
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआए पंडित भया न कोयए
ढाई आखर प्रेम काए पढ़े सो पंडित होय।
 
अर्थ रू बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गएए पर सभी विद्वान न हो सकेण् कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ लेए अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगाण्
 
कृ
 
 साधु ऐसा चाहिएए जैसा सूप सुभायए
सार.सार को गहि रहैए थोथा देई उड़ाय।
 
अर्थ रू इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता हैण् जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगेण्
 
कृ
 
तिनका कबहुँ ना निन्दियेए जो पाँवन तर होयए
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़ेए तो पीर घनेरी होय।
 
अर्थ रू कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता हैण् यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !